द्रौपदी के बारे में कुछ रोचक तथ्य ! Untold Facts Draupadi



महाकाव्य महाभारत की नायिका द्रौपदी के विषय में भारतवर्ष में ऐसे बहुत कम लोग होंगे, जो नहीं जानते होंगे। किन्तु फिर भी, जिस द्रौपदी को हम जानते हुए बड़े हुए हैं, जिसके रूप को TV पर देखा है या उपन्यासों में पढ़ा है, जिसके विषय में इतनी कथायें सुन रखी हैं, उसमें व व्यास रचित महाकाव्य की द्रौपदी में काफ़ी अंतर है।


  • जब द्रुपद ने द्रोण को मार सके ऐसे पुत्र की कामना से यज्ञ किया था, तब उस यज्ञ की वेदी से द्रौपदी भी उत्पन्न हुई थी।
  • द्रौपदी अत्यधिक श्याम वर्णा थी, और इसलिए उसका नाम कृष्णा रखा गया था। उसे द्रुपद-पुत्री होने के कारण द्रौपदी, पाँचाल-कुमारी होने के कारण पाँचाली, व द्रुपद के एक अन्य नाम यज्ञसेन के कारण यज्ञसेनी भी कहते हैं।
  • कहते हैं द्रौपदी श्री का अवतार थी। उनके जैसी सुंदर स्त्री उस समय अन्य कोई नहीं थी।
  • द्रौपदी अत्यंत बुद्धिमान, शालीन, कर्तव्यपरायण व परिश्रमी भी थी। इंद्र्प्रस्थ में उनका स्थान महारानी होने के साथ वित्त मंत्री का भी था। द्रौपदी सत्यभामा को बताती हैं कि वो सवेरे सबसे पहले उठती थी व रात्रि में सबसे अंत में सोती थी। उनकी दिनचर्या में सहस्त्रों ब्राह्मणों व स्नातकों को भोजन करवाना, महल के दास-दासियों के काम देखना व उनका ध्यान रखना, राजस्व का ध्यान रखना, लोगों की समस्याएँ सुनना इत्यादि शामिल था। इसके अलावा वे कुंती का व अपने पतियों व बच्चों का ध्यान भी रखती थी, व अपने राज्य के सबसे दीन व विकलांग लोगों को भोजन दिए बिना स्वयं नहीं खाती थी। उनकी कर्तव्यपरायणता का तो दुर्योधन भी क़ायल था।
  • द्रौपदी ने अपने स्वयंवर में भाग लेने से कर्ण या किसी और को कभी नहीं रोका। क्योंकि ऐसा करने का उनके पास अधिकार ही नहीं था। उनके पिता ने प्रतिज्ञा की थी कि वो स्वयंवर की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले से अपनी पुत्री का विवाह करेंगे। अर्थात द्रौपदी वीर्यशुल्क थीं, और अपने पिता के वचन से बंधी थी। कर्ण को ना कहने की कथा असत्य है व बहुत बाद में जोड़ी गयी है।
  • द्रौपदी को अन्य पुरुषों के सामने जाना या अपने महल को छोड़ना पसंद नहीं था। जब उन्हें द्यूत सभा में ज़बरन खींच कर लाया गया, तो उन्होंने कहा कि यह उनके जीवन में दूसरी बार है कि एक भरी सभा में पुरुष उन्हें देख रहे हैं। पहली बार उनके स्वयंवर के समय ऐसा हुआ था।
  • द्रौपदी का दुर्योधन के ऊपर हँसना व उसे ‘अंधे का पुत्र अंधा’ कहना बड़ा प्रसिद्ध क़िस्सा है। किन्तु यह भी सरासर असत्य है। जब दुर्योधन गिरा तो उस समय भीम व उसके अनुज दुर्योधन पर हँसे थे, द्रौपदी वहाँ थी ही नहीं। और यह वाक्य सम्पूर्ण महाभारत में किसी ने कभी नहीं कहा।दानव मय द्वारा केवल उनकी सभा का निर्माण हुआ था, सम्पूर्ण महल का नहीं, और द्रौपदी सभा में नहीं जातीं थीं। दुर्योधन माया सभा में ही घूम रहा था जब उसके साथ दुर्घटनाएँ घटीं।
  • द्यूत सभा में अपने ऋतुमास के समय, एक वस्त्र में अपने केशों द्वारा खींच कर ज़बरन लाए जाने पर भी द्रौपदी ने अपना धैर्य नहीं खोया व तर्क-वितर्क से अपनी बात रखी। जब उनके प्रश्नों से कौरव घबरा गए तो उन्होंने द्रौपदी की अस्मिता को निशाना बनाया उन्हें चुप कराने के लिए। एक पतिव्रता नारी को वेश्या कहा, उसके चीर हरण की चेष्टा की, उसे कहा कि उसके पति समाप्त हो गए हैं, अब वो एक दासी है और कौरवों में से किसी को नया पति चुन ले। इन सबके बावजूद, जब धृतराष्ट्र ने द्रौपदी से वर माँगने को कहा, तो द्रौपदी ने मात्र अपने पतियों को उनके आयुधों के साथ मुक्त करने की माँग की। बहुत कहने पर भी अन्य कुछ नहीं माँगा।
  • द्रौपदी पूरे वनवास में अपने केश खोल के घूमती रहीं, व दुशासन के रक्त से उन्हें धोकर ही उन्होंने अपने केश बांधे, यह असत्य है। युद्ध के समय द्रौपदी कुरुक्षेत्र में थी ही नहीं, वो विराट के एक नगर उपप्लवय में थी अन्य स्त्रियों के साथ। ना उन्होंने केश खोल रखे थे, ना दुशासन के रक्त से उन्हें धोया।
  • उनके अलावा पांडवों की अन्य कोई पत्नी इंद्र्प्रस्थ में नहीं रह सकती, ऐसी कोई माँग द्रौपदी ने नहीं की थी। पांडवों की अन्य स्त्रियाँ या तो इंद्रप्रस्थ में रहती थी या आती-जाती रहती थीं।
  • द्रौपदी कुंती को बहुत मान देती थीं, व कुंती को द्रौपदी अत्यंत प्रिय थी। द्रौपदी के अपमान से कुंती बहुत द्रवित हुई थीं व उन्होंने कृष्ण के हाथों पांडवों को संदेश भिजवाया था कि वे द्रौपदी के अपमान का प्रतिशोध लें, शांति की ना सोचें।
  • द्रौपदी अपने सभी पतियों को व उनकी विशेषताओं को पहचानती थीं। हर एक की ताक़त व कमज़ोरी का सही अंदाज़ा था उन्हें, और उनका आचरण भी उसी प्रकार से होता था। किस पति से कैसे काम निकालना है, एक कुशल पत्नी की तरह ये वो जानती थी।
  • द्रौपदी अपने सभी पतियों से प्रेम करती थी व उन्होंने सभी के प्रति अपने सारे कर्तव्य निभाए, किन्तु सबसे अधिक प्रेम वो अर्जुन से करती थी। जब अर्जुन स्वर्गलोक से वापस आनेवाले थे, तब सब उन्हें लेने गन्धमादन पर्वत पर जा रहे थे। रास्ता अत्यधिक कठिन व भयानक था, अतः युधिष्ठिर का सुझाव था कि द्रौपदी वहाँ ना जाए। किन्तु द्रौपदी ने किसी की ना सुनी, चाहे रास्ते में बेहोश हुईं, किन्तु अर्जुन को लेने सबके साथ गयीं। अर्जुन पर उनको बहुत गर्व था, वो उनका अभिमान थे।उन्हें बृहनल्ला बने देख द्रौपदी अत्यंत दुखी होतीं थीं। किन्तु सबसे अधिक फ़ायदा उन्हें युधिष्ठिर की पत्नी होने से था, क्योंकि उनका महारानी होना, उनका मान-सम्मान व वर्चस्व, सब युधिष्ठिर के कारण था। अतः सबसे अधिक सम्मान वे युधिष्ठिर को देती थी।
  • द्रौपदी ने सुभद्रा को अपनी छोटी बहन बना के रखा, व उनके पुत्र अभिमन्यु से विशेष स्नेह था उन्हें। सुभद्रा ने भी द्रौपदी को बहुत मान दिया, व उनके पुत्रों को स्नेह। युद्ध के दौरान द्रौपदी कड़े व्रत का पालन कर रहीं थीं, व सुभद्रा उस समय एक दासी की तरह उनकी सेवा कर रही थी। यह बात दुर्योधन भी जानता था कि द्रौपदी का वो व्रत उसके पतन के लिए है।
  • वनवास के दौरान सिंधु नरेश जयद्रथ ने द्रौपदी का हरण करने की चेष्टा की थी। किन्तु दुशला का पति होने के कारण युधिष्ठिर ने उसे क्षमा कर दिया, व द्रौपदी उनसे सहमत थीं।
  • जब पांडव अपने अज्ञातवास के दौरान राजा विराट के महल में दास बनकर रह रहे थे, तब कीचक की कुदृष्टि द्रौपदी पर पड़ी। वो रानी का भाई था, मत्स्य का सेनापति भी व अत्यंत कुशल योद्धा भी। किन्तु द्रौपदी ने उसे अपनी स्थिति का फ़ायदा नहीं उठाने दिया। हालाँकि दासों के पास कोई अधिकार नहीं होते थे, किन्तु द्रौपदी जब इंद्रप्रस्थ की महारानी थीं तब सभी दास-दासियों को व उनकी समस्याओं को वही देखती थीं, और जब उन्होंने स्वयं कभी किसी दास पर अत्याचार नहीं होने दिया तो स्वयं पर क्यों होने देतीं! अतः अपनी रक्षा के लिए वो विराट की सभा में पहुँची व उन्होंने सीधे राजा से अपनी रक्षा की गुहार लगायी। किन्तु ना हर राजा युधिष्ठिर जैसा था व ना हर रानी द्रौपदी जैसी, और विराट ने अपने सेनापति के विरुद्ध कोई क़दम नहीं उठाया। इसे आप sexual harassment in workplace by a superior का एक उदाहरण ही समझिए, जिसपर कोई कार्यवाई नहीं की गयी। सभा में युधिष्ठिर व भीम भी उपस्थित थे, जब कीचक ने द्रौपदी को उसकी असहाय स्थिति का आभास दिलाने के लिए लात मारी। द्रौपदी ने विराट को उसके राजा होने का कर्तव्य याद दिलाया, किन्तु एक शक्तिशाली सेनापति का पलड़ा एक साधारण दासी से भारी लगा विराट को, और उनके मौन ने कीचक को स्वीकृति दे दी। युधिष्ठिर ने द्रौपदी को वहाँ से जाने को कहा, क्योंकि अज्ञातवास के बस कुछ दिन ही शेष बचे थे। युधिष्ठिर का निर्णय व्यावहारिक दृष्टि से उचित हो, किन्तु एक नारी व एक परवश के प्रति यह अन्याय था, व जब द्रौपदी ने कभी अन्याय किया नहीं तो वो उसे सहती क्यों! अतः भीम के हाथों उन्होंने कीचक का वध करवा दिया।
  • अपने पुत्रों, भाइयों, चाचाओं, भांजों समेत पूरे पाँचाल खेमे को समाप्त करने वाले अश्वत्थामा को द्रौपदी ने उसका माथे का मणि लेकर क्षमा कर दिया, क्योंकि वह गुरुपुत्र था और गुरु के प्रति अर्जुन के प्रेम को वो जानती थीं। उस मणि को उन्होंने युधिष्ठिर को दे दिया।
  • द्रौपदी श्रीकृष्ण की सखी थीं। द्रौपदी, अर्जुन, कृष्ण व सत्यभामा बहुत अच्छे मित्र थे व जब वे मिलकर बैठते थे तो नकुल, सहदेव व पुत्रों का प्रवेश वर्जित होता था।
  • अपने पतियों की प्रिय पत्नी थी द्रौपदी। वो उनकी सेवा भी करतीं थी व उनपे राज भी। सत्य तो यह है की एक युधिष्ठिर को छोड़ अन्य सभी उनके कहने में थे, और जब अज्ञातवास के पश्चात उन्होंने देखा कि एक सहदेव को छोड़ उनके अन्य सभी पति युधिष्ठिर के समान शांति चाहते हैं, तो उनके अविश्वास व क्रोध का पारावार ना रहा, और उन्होंने भरी सभा में हुआ उनका अपमान सबको स्मरण कराया व अर्जुन व कृष्ण से वचन लिया की वो उन्हें न्याय दिलाएँगे।
द्रौपदी एक अत्यंत समझदार, बुद्धिमान, कर्तव्यपरायण व महत्वकांगशी महिला थीं। युधिष्ठिर के कारण उनके हाथ में सत्ता व शक्ति थी, जिसका सही उपयोग करना वो जानती थीं। यदि वो युग स्त्रियों का होता, तो द्रौपदी का निश्चय ही सत्ता में और भी अधिक योगदान व हस्तक्षेप होता। लोग उन्हें या तो एक बिना सोचे-समझे मुख से आग निकालती एक बेवक़ूफ़ नारी के रूप में देखते हैं जो युद्ध का कारण बनी, या एक अबला के रूप में जो पाँच भाइयों में बाँट दी गयी व सारी उम्र दुखी रही। ये दोनो ही असत्य हैं। द्रौपदी की शक्ति ही अपने पाँच पतियों से थी। दुःख उन्होंने मात्र १३ वर्ष झेले, बाक़ी का सारा जीवन उन्होंने एक महारानी व साम्राज्ञी के रूप में बिताया। चाहे द्यूत में जो हुआ हो, ना उन्होंने किसी और के समक्ष अपने पतियों को दोष दिया, ना कभी उनका साथ छोड़ने के विषय में सोचा, बल्कि जीवन की अंतिम साँस तक उनके साथ रही। यह उनका पतिव्रत धर्मपालन भी था व राजनैतिक ज़रूरत भी। बहुत कम नारियाँ होती हैं जो पत्नी व रानी पहले होती हैं व माँ बाद में, और द्रौपदी एक ऐसी ही स्त्री थी। ना वो देवी थी ना खलनायिका, बस हर मनुष्य की भाँति अच्छी व बुरी दोनों का मिश्रित रूप थी। किन्तु जिस युग की वो स्त्री थी, उस समय इतना वर्चस्व रखना अपने आप में एक अनोखी बात थी। बिना सोचे समझे बोलना द्रौपदी जानती ही नहीं थी, क्योंकि वो अत्यंत बुद्धिमान थीं। अपनी सभी बातें तर्क-वितर्क करके रखतीं थीं, व सदा न्याय व धर्म का साथ देती थीं। युद्ध उनके लिए प्रतिशोध नहीं, न्याय था। और युद्ध का कारण वो नहीं थीं; यदि दुर्योधन संधि के लिए मान जाता तो द्रौपदी को अपनी स्थिति से समझौता करना पड़ता। युद्ध हुआ युधिष्ठिर को उनका राज्य वापिस दिलाने के लिए।
युधिष्ठिर ने पत्नी को एक मनुष्य की सबसे अच्छी मित्र बताया है, यानी वो द्रौपदी को अपनी निकटतम मित्र मानते थे। भीम उनके रक्षक थे व अर्जुन की वो प्रेयसी थी। उनके ५ स्वामी थे व वे पाँच वीरों की स्वामिनी थीं।


Writer --Roopal Garg

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