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एक बार गुरु रामानंद ने कबीर से कहा,
"कबीर,आज श्राद्ध का दिन है और पितरों के लिये खीर बनानी हैआप जाइये,पितरों की खीर के लिये दूध ले आइये।"
कबीर उस समय छोटी आयु के ही थे..
कबीर
दूध का बरतन लेकर चल पडे।चलते चलते आगे एक गाय मरी हुई पड़ी मिली।कबीर ने
आस पास से घास को उखाड कर,गाय के पास डाल दिया और वही पर बैठ गये।
दूध का बरतन भी पास ही रख लिया।
काफी
देर हो गयी,कबीर लौटे नहीं, तो गुरु रामानंद ने सोचा,पितरों को छिकाने का
समय हो गया है,कबीर अभी तक नही आया,तो रामानंद जी खुद दूध लेने चल पड़े।
चले जा रहे थे तो आगे देखा कि कबीर एक मरी हुई गाय के पास बरतन रखे बैठे है।
गुरु रामानंद बोले,"अरे कबीर,तू दूध लेने नही गया?"
कबीर बोले: स्वामीजी,यह गाय पहले घास खायेगी तभी तो दूध देगी...!!!
रामानंद बोले:अरे,यह गाय तो मरी हुई है,यह घास कैसे खायेगी?
कबीर बोले: स्वामी जी,यह गाय तो आज मरी है....जब आज मरी गाय घास नही खा सकती,तो आपके 100 साल पहले मरे हुए पितर खीर कैसे खायेंगे?
यह सुनते ही रामानन्दजी मौन हो गये।उन्हें अपनी भूल का अहसास हुआ।
माटी का एक नाग बना के पुजे लोग लुगाया,
जिंदा नाग जब घर में निकले ले लाठी धमकाया।
जिंदा बाप कोई न पुजे मरे बाद पुजवाया,
मुठ्ठीभर चावल ले के कौवे को बाप बनाया।
यह दुनिया कितनी बावरी हैं,जो पत्थर पूजे जाय
संत कबीर के ये दोहे सदियों से चली आ रहीं पुरानी परम्पराओं पर पुनर्विचार करने पर मजबूर कर देते हैं।
वास्तव
में जब कबीरदास जी का धरा पर आगमन हुआ था,उस समय आज से भी कई गुना ज्यादा
कुरीतियाँ, अन्धविश्वास और बेसिरपैर की मान्यताएं समाज में प्रचलित
थीं,जिनका कबीरदास जी ने जमकर विरोध किया।
उनके
सटीक और साहसिक विचारों ने उनके गुरू रामानन्द को भी उनके समक्ष नतमस्तक
कर दिया था,जिनसे सूझ बूझ से जबरदस्ती कबीर ने अधिकारपूर्वक दीक्षा ली थी
जिसका पूर्ण वर्णन इसी प्रश्न के दूसरे उत्तरों में प्रभावशाली ढंग से दिया
गया है।
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