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जी
हाँ, ये बात न केवल सत्य है बल्कि इसके पीछे बहुत ही गहराई पूर्ण उद्देश्य
भी है। यों तो दुर्गा पूजा या दुर्गा उत्सव सम्पूर्ण भारतवर्ष में मनाया
जाने वाला त्योहार है लेकिन इसकी शुरआत पश्चिम बंगाल से हुई थी। यह त्योहार
पश्चिम बंगाल का मुख्य त्योहार है जिसमे बड़े बड़े पंडाल सजाकर उनमे मां
दुर्गा की प्रतिमा की पूजा की जाती है। कलकत्ता का एक खास इलाका पूजा की
मूर्तियों के निर्माण और निर्माण करने वाले कारीगरों के लिये पूरे भारत मे
प्रसिद्ध है।
विधि
विधान से मां दुर्गा की मूर्ति बनाने की जो परंपरा सदियों से चली आ रही है
उसके अनुसार जिस मिट्टी से प्रतिमा तैयार की जाती है उस मिट्टी में थोड़ी
मिट्टी पवित्र गंगा के किनारे से, थोड़ी सी मिट्टी वेश्याओं के आंगन से और
कुछ गौमूत्र और गोबर, इन सब को मिलाया जाता है।
इसमे
जो बात अनजान लोगों को अचम्भित करती है वो ये हां की इतनी पवित्र
मूर्तियों मे वेश्याओं के आंगन की मिट्टी भला क्यों मिलाई जाती है ? यों तो
इसके पीछे कई किंवदंतिया मशहूर है जिनमे से एक यह भी है कि- एक दफा एक
वेश्या ने मां दुर्गा की अनन्य भक्ति की थी। माँ दुर्गा ने जब प्रसन्न होकर
उसे वर देना चाहा तो उसने अपने समान स्त्रियों (वेश्याओं) के तिरिस्कृत
होने की पीड़ा मां से कही। मां ने वेश्याओं को तिरस्कार से बचाने के लिये
उनके आंगन की मिट्टी से बनी अपनी प्रतिमा की पूजा करने पर ही अपना आशीर्वाद
देने होने का वरदान दिया।
हालांकि
इस बात के पीछे जो कारण तर्कसंगत है और जो बहुत गहराई पूर्ण होने के साथ
हमारे समाजसुधारकों की बुद्धिमत्ता का परिचय देता है, वो ये है कि -
किसी
स्त्री के वेश्या बनने के पीछे पुरुष समाज जिम्मेदार होता है। जबकि एक तरफ
तो वो समाज एक स्त्री (जो कि एक वेश्या है) को तिरस्कार की नजर से देखता
है और दूसरी तरफ देवी के स्त्री रूप की पूजा करता है, ये दोनों बातें एक
दूसरे के बिल्कुल विपरीत मानसिक स्थितियो को दर्शाती है। इसलिये समाज को
ये संदेश देने के लिये यह परंपरा चली आ रही है की एक अच्छे समाज के लिये
एक स्त्री सर्वदा पूजनीय है, हर रूप में पूजनीय है। बेशक वह एक वेश्या ही
क्यों न हो।
पाठकों की राय स्वागत योग्य है।
हालांकि
इस लेख के लिये किसी मूल स्रोत की जरूरत नही है क्योंकि इस परंपरा से
अधिकतर लोग वाकिफ है फिर भी आप गूगल सर्च कर सकते है या दुर्गा पूजा का
साहित्य पढ़ कर ये
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