सिक्ख धर्म में सभी महिलाओं के नाम के पीछे 'कौर'और पुरूषों के नाम के पीछे 'सिंह' क्यों लगाया जाता है?


 

हम सब के नाम और उपनाम अलग-अलग हैं. अगर देखा जाए तो हजारों तरह के उपनाम है, आप एक उदाहरण देख लीजिए : अगर सौ लोग बैठे होंगे, और आप उनके उपनाम जानेंगे तो सब के उपनाम लगभग अलग ही होंगे. जैसे कोई अग्रवाल होगा, कोई कपूर, कोई शर्मा, कोई महाजन, कोई चैटर्जी आदि. परंतु सिख धर्म में सभी के चाहे जातिसूचक नाम अलग हो परंतु नाम के आगे ‘सिंह ’अनिवार्य होता है. जैसे गुरप्रीत सिंह ढिल्लों.
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आइए जानते हैं ‘सिंह’ और ‘कौर’ नाम के पीछे क्या इतिहास है? और इनकी क्या विशेषता है? यह प्रथा तब शुरू हुई जब 1699 में दसवीं पातशाही श्री गुरु गोविंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की. उन्होंने यह ऐलान किया कि सिखों को एक नई पहचान दी जाएगी. जातिवाद और ऊंच नीच का भेदभाव खत्म करने की कोशिश की जाएगी, क्योंकि इन सब का सिख धर्म में कोई स्थान नहीं है. यह वह समय था जब जाति से ही लोगों की पहचान होती थी. वास्तव में यह नामकरण जातिवाद व्यवस्था पर कुठाराघात था. गुरु जी ने कहा भाइयों को ‘सिंह’ शब्द से उच्चारित किया जाएगा. सिंह यानी ‘शेर ’जो किसी से नहीं डरता, उसे सिर्फ ईश्वर का ही भय है और सच्चा सिंह सिर्फ सच के मार्ग पर ही चलता है. अब जहां तक ‘कौर’ शब्द के अर्थ का सवाल है, कौर का अर्थ होता है: ‘राजकुमारी. ’ इसे संस्कृत शब्द कुमरी और राजस्थानी शब्द कुंवर के स्त्रीलिंग के रूप में लिया जाता है. गुरुजी ने स्त्रियों को पुरुषों जितना सम्मान प्राप्त हो, यह सुनिश्चित किया. भारत में सिख लड़कियां शादी के बाद भी यह उपनाम नहीं बदलती. यह उपनाम उनके नाम के साथ लगा रहता है वास्तव में में गुरु जी ने स्त्री और पुरुष दोनों को बराबर लेकिन साथ ही अद्वितीय माना. कई सिख नामों की समानता के चलते अपने गांव का नाम साथ में जोड़ लेते हैं,जिससे उनके नाम से मिलते जुलते नामों की समस्या का समाधान हो सके.
भारत में ‘ सिंह ’उपनाम केवल सिखों द्वारा ही प्रयोग नहीं किया जाता, बल्कि यह अन्य कई जातियों द्वारा शीर्ष या मध्य नाम या उपनाम के रूप में प्रयोग किया जाता है. जैसे गुज्जर: मानसिंह गुर्जर, मराठा : प्रताप सिंह गायकवाड, हिंदू जाट : भीम सिंह राणा और सिख जाट : रणजीत सिंह आदि.

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